शापित हो चला मैं,
बेखोफ समाज में,
कल-तक उनसा था,
आज चला ज़िन्दगी में,
कुछ अर्द्धसत्य लिए ।
बेखोफ समाज में,
कल-तक उनसा था,
आज चला ज़िन्दगी में,
कुछ अर्द्धसत्य लिए ।
चले अर्धनिर्मित विचार भी
बवण्डर की शक्ल से सजे,
किसी सोच से परे,
मुझको खुदमें, खिंचे चले ।।
बवण्डर की शक्ल से सजे,
किसी सोच से परे,
मुझको खुदमें, खिंचे चले ।।
है वो समाज भी,
आज तमाशदीन सा सजा,
था जहाँ मैं, कल तक ख़ास,
आज वही, मैं अछुत हो चला।।
आज तमाशदीन सा सजा,
था जहाँ मैं, कल तक ख़ास,
आज वही, मैं अछुत हो चला।।
सजे अंगिनत सवाल भी,
जवाब के अभाव में,
जो पुछते है, मुझसे हरपल,
शापित मैं ही, क्यों हुआ?
जवाब के अभाव में,
जो पुछते है, मुझसे हरपल,
शापित मैं ही, क्यों हुआ?
मेरे अर्धसत्य हालात पर,
मिली चारदीवारी भी नई,
जो थी पिंजरे से सजी,
तनहाई की दावत लिए खड़ी।
मिली चारदीवारी भी नई,
जो थी पिंजरे से सजी,
तनहाई की दावत लिए खड़ी।
और इस आपाधापी के बीच,
एक था मैं,
किसी अर्दस्तय रहो में,
सत्य की तलाश लिए।।
एक था मैं,
किसी अर्दस्तय रहो में,
सत्य की तलाश लिए।।
No comments:
Post a Comment