है एक पिंजरा सा खड़ा,
वक्त के तराज़ू से बंधा,
लिए वेशभूषा की मानसिकता,
खुद मैं ही उलझा सा पड़ा !!
वक्त के तराज़ू से बंधा,
लिए वेशभूषा की मानसिकता,
खुद मैं ही उलझा सा पड़ा !!
है उड़ानो की चाह,
है उम्र से बंधा,
भुलाके सपनो की राह !!
किसी के सपनो में उलझा है पड़ा !!
है उम्र से बंधा,
भुलाके सपनो की राह !!
किसी के सपनो में उलझा है पड़ा !!
है वो जिंदगी सी चली
जो है सवालो से घिरी,
हर कार्य से पहले,
इज़ाजत मैं उलझी है खड़ी !!
है एक अदभुत समाज,
लड़को की बेडियों से बंधा,
बदलते वक्त मैं भी,
प्रतिष्ठा की डोर लिए खड़ा !!
हूँ क्या मैं भी कसूरवार,
हूँ क्या मैं भी कोई पिंजरा थामे खड़ा,
क्या मैं भी किसी मोड़,
बेडियो में उलझा हूँ खड़ा !!
हूँ क्या मैं भी कोई पिंजरा थामे खड़ा,
क्या मैं भी किसी मोड़,
बेडियो में उलझा हूँ खड़ा !!
खुद से पूछो जो सवाल,
तो करो तुम पश्चाताप
ताकि खोल सको वो पिंजरे,
और तोड़ सको वो उलझी बेडिया !!
और फिर उड़े नारी,
हराके बंदिशे सारी,
चले सफलताओ को लिए,
बस ख्वाइशों की उड़ान को जिए !!