Wednesday, 9 August 2017

धार्मिकता

धार्मिकता ओझल हुई,
नए युग की दिनचर्या से कहीं ।
तर्क-वितरक की ज़िंदगी जीए,
आस्था से मुख मोड़े खड़ी ।
है पुर्वजो की दास्तान सजी,
हर भोर नई जिंदगी लिए ।
और है एक दिनचर्या विपरीत,
हर भोर, पुरानी दिन की समाप्ति लिए।।
है क्या ? नवयुग परम्पराओ से दूर,
ज़िन्दगी की पहेलियों में, कही ।
या ना चाहकर भी,
वक्त के चक्रव्यूह ने किया,
अपनो से दूर, कहीं।
कही है आस्था अद्भुत,
है कही औपचारिकता सजी।
कही खुशियो को ढूंढती ज़िन्दगी,
और कही ज़िन्दगी,
हर परिस्थिति में मुस्कुराती दिखी ।।
है ये अनसुलझे सवाल
तर्क-वितर्क के तराजू में सजे
है सब सही,
अपनी ज़िंदगी में कही,
जबतक चल रही ज़िन्दगी,
नाक्रमकता से दूर ।
अपनो की जरूरतों के लिए,
ज़िन्दगी को ढूंढती ज़िन्दगी ।

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